26.9.12

बच्चों का जीवन

'ऐसी क्या चीज है, जो आपको तो नहीं मिलती है पर आपसे उसकी आशा सदैव की जाती है', आलोक ने बच्चों से पूछा। इज्जत या आदर, उत्तर मिलने में अधिक देर नहीं लगी, और बहुत बच्चों ने यह उत्तर दिया। उत्तर सही भी है, बच्चे के दृष्टिकोण से देखें, उससे सदा ही आशा की जाती है कि वह अपने माता-पिता, गुरुजनों और अग्रजों का आदर करे, पर उसे सदा ही अनुशासनात्मक, उपदेशात्मक और प्रताड़ित करते हुये से आदेश मिलते हैं। किसी के जीवन में इसकी मात्रा कम रही होगी, किसी के जीवन में अधिक, पर भूला तो कोई भी नहीं होगा। बच्चों के लिये अन्याय और अनादर भूलना बहुत कठिन होता है। झाँसी प्रवास के समय हमारे पुत्र की पूरी कक्षा को किसी एक की उद्दण्डता के लिये दण्ड मिला, बहुधा शान्त से रहने वाले हमारे सुपुत्र जी इसको पचा नहीं पाये और बहुत क्रोधित हुये। क्रोध तो धीरे धीरे शान्त हो गया पर उनकी स्मृति में उन अध्यापक के प्रति एक निम्न धारणा बन गयी। ऐसी चीजें भूलना कठिन भी होती हैं, जहाँ जहाँ मुझे बिना मेरी भूल के डाँट या मार पड़ी है, वे सारे स्थान, व्यक्ति और घटनायें स्पष्ट याद हैं। बड़े होने के बाद बहुत से अन्याय या तो भूल गया हूँ या क्षमा करता आया हूँ, पर बचपन के नहीं भूलते हैं, न जाने क्यों?

आलोक चित्रकार हैं, मित्र हैं और गोवा में रहते हैं। बच्चों के विषय में अत्यन्त संवेदनशील है और बच्चों के उन्मुक्त विकास के बारे में अद्भुत विचारों से परिपूर्ण भी। जो तथ्य उसको सर्वाधिक कचोटता है कि किस प्रकार हम समाज के रूप में अपनी ही क्षमताओं और संभावनाओं का हनन करते रहते हैं, बचपन से अब तक। हम कैसे अपने बच्चों के प्रति अति अतिसंरक्षणमना हो जाते हैं, उसकी राह की दोनों ओर दीवार बनाते हुये चलते हैं और अपनी इस मूढ़ता को सफलता मानकर प्रसन्न भी हो लेते हैं। आलोक की माने तो बच्चे प्राकृतिक रूप से चित्रकार होते हैं, सबसे अच्छे, उनके हाथ में रंग और ब्रश पकड़ाकर देखिये बस, उनकी अभिव्यक्ति पवित्रतम और सृजनतम होती है। धीरे धीरे वे बड़े हो जाते हैं, उनके ऊपर दायित्वों, कर्तव्यों और आकड़ों का बोझ डाल देते हैं हम सब, बड़ा होते होते वह सारी चित्रकला भूल जाता है।

यद्यपि आलोक बहुत अच्छे चित्रकार हैं पर उन्हें भी लगता है कि बड़े होने के प्रयास में वह थोड़ी बहुत चित्रकला भूल गये हैं। यही कारण है कि उन्हें बच्चों के साथ समय बिताना अच्छा लगता है। पहला कारण यह कि बच्चों के व्यवहार में कोई कृत्रिमता नहीं होती और दूसरा यह कि बच्चों के साथ रहने से हर बार उसे कुछ न कुछ सीखने को मिल जाता है, अपनी चित्रकला के लिये, अपने व्यक्तित्व के लिये। आलोक नियमतः प्रत्येक रविवार सड़क पर रहने वाले या अतिनिर्धनता में जीवन यापन करने वाले बच्चों को चित्रकला सिखाते हैं, एक संस्था के लिये, मुफ्त में। यही नहीं, आलोक उस संस्था के प्रति कृतज्ञ भी रहते हैं क्योंकि उनका कहना है कि हर बार वह उन बच्चों से कुछ सीख कर ही जाते हैं। हम सब पर भी यही नियम लागू होता है, जब कभी भी आपके पास विचारों की कमी हो या विचारों के प्रवाह में स्तब्धता हो, तो बच्चों को देखिये, बच्चों के साथ समय बिताइये, बच्चों से सीखिये।

उपरोक्त प्रश्न, ऐसी ही एक कक्षा के समय पूछा था आलोक ने। प्रश्न अच्छा खासा समझा हुआ था और उत्तर अन्ततः वहीं पर जाना था। बच्चों की तार्किक क्षमता को कमतर समझने की हमारी मानसिकता को झटका तब लगता है जब बच्चे सीधा और अन्तिम उत्तर दे देते हैं। उत्तर इतना सटीक और बहुतायत में मिलेगा, यह आलोक के लिये भी आश्चर्य का विषय था। बच्चों से यह प्रश्न सीधे भी पूछा जा सकता था कि कौन आपको अच्छा लगता है, कौन नहीं। बच्चों के लिये अच्छा लगने या अच्छा न लगने का केवल एक ही मानक है, कि कौन उनके अस्तित्व का आदर करता है या कौन नहीं।

इसके पहले कि इस विषय में प्रतिप्रश्न खड़े हो जायें, इस बात को स्पष्ट कर देता हूँ कि अनुशासन और अनादर में अन्तर है। पारिवारिक अनुशासन आवश्यक है और वह बड़ों को अपने आचरण से स्थापित करना होता है, बच्चों को श्रम का गुण सिखाना हो तो स्वयं भी खटना होता है। अनुशासन का यह स्वरूप आदर के साथ संप्रेषित होता है। कुछ स्वयं न करें और स्वयं को बच्चों को थोप दें, यह अनुशासन तो है पर अनादर के साथ। अनुशासन के अतिरिक्त बहुत से ऐसे निर्णय होते हैं जिनमें हम अपने बच्चों की चिन्तन प्रक्रिया को मान नहीं देते हैं, उनके उत्साह को अपने अनुभव से ढकने का प्रयास करते हैं। निश्चय ही बड़ों ने अधिक जीवन जिया है और उनके अन्दर अपने बच्चों के योगक्षेम की भावना भी अधिक है, पर उस अनुभव से और उस प्यार से बच्चों की निर्णय प्रक्रिया को बल मिले, न कि अनादर।

आलोक बचपन से ही चित्रकार बनना चाहता था, उसे घर में थोड़ा प्रतिरोध और बहुत सहयोग मिला, उसके निर्णय को आदर मिला, उसने अपना जीवन बचपन से ही स्थापित दिशा में बढ़ाया। जब बचपन से ही आपके अस्तित्व को सम्मान मिलता है, लाड़ दुलार से थोड़ा अधिक गंभीर, तो जीवन जीने का आत्मविश्वास कई गुना बढ़ जाता है। निर्णय तो देर सबेर लेने ही होते हैं, यदि आप बचपन में नहीं लेंगे तो बड़े होकर आपका पीछा करेंगे। अपने निर्णय लेने से साहस बढ़ता है। कई मित्रों को जानता हूँ जो अभी भी स्वतन्त्र निर्णय लेने में घबराते हैं, दूसरे का मुँह ताकने लगते हैं। माता पिता के रूप में हम उनके शुभचिन्तक अवश्य हो सकते है, उन्हें अपने अनुभव व ज्ञान के आधार पर समुचित सलाह भी दे सकते हैं, पर निर्णय बच्चों को ही लेने देना हो। अपने लिये निर्णयों में मन खपा देने की ऊर्जा आ जाती है बालमनों के अन्दर।

वहीं दूसरी ओर अपना बचपन देखता हूँ तो निर्णय लेने की सारी स्वतन्त्रता थी, छात्रावास में रहने से निर्णय-प्रक्रिया समय के पहले ही पक गयी। कभी कभी बच्चों से विनोद में पूछता हूँ कि वे बड़े होकर क्या बनना चाहते हैं तो वे उल्टा प्रश्न ही दाग देते हैं, कि आपके पिताजी आपको क्या बनाना चाहते थे? जब कहता हूँ कि मुझे पूरी स्वतन्त्रता थी निर्णय लेने की कि मैं क्या बनना चाहता हूँ, तो उन्हें बड़ा अच्छा लगता है कि घर में बच्चों का अधिकार न हड़पने की परम्परा है। अगला प्रश्न और पेचीदा होता है, कि आपको जब छूट थी और आपने जो चाहा, वह बन भी गये तो अब लैपटॉप के आगे बैठकर लिखते क्या रहते हो? स्मृतियाँ सामने घूम जाती हैं और मैं बच्चों को मन का सच बता देता हूँ।

स्वतन्त्रता थी और मन में इच्छा गणितज्ञ बनने की थी, गहरी रुचि भी थी गणित में, सवालों और अंकों से मित्रता सी रहती थी। यदि और अधिक नहीं सोचता तो निश्चय ही किसी विश्वविद्यालय में गणित की गुत्थियाँ सुलझा रहा होता, अंकों की भाषा विद्यार्थियों को सिखा रहा होता। आईआईटी में प्रवेश भी मिल गया और तब वह समय आया जब यह निर्णय करना था कि अन्ततः क्या करना है? जब निर्णय लेने की स्वतन्त्रता मिलती है तो व्यक्ति समय के पहले ही प्रौढ़ हो जाता है, माता-पिता ने जब बालमन को यह आदर दिया तो बरबस ही मन यह जानने लग गया कि भला माता-पिता क्या चाहते हैं? एक बार उनके मन की जानी तो मन ने निश्चय कर लिया कि सिविल सेवा में जाना है, सफलता मिली और रेलवे में आना हुआ, कार्य में मनोयोग से लगे भी हैं। बहुत पहले से लेखन भी होता था, अब धीरे धीरे लेखन में मन लगने लगा है, अंकों से खेलने वाला बालमन अब शब्दों के अर्थ समझ रहा है, और अब तो यह भी पता नहीं कि अभी अस्तित्व के कितने खोल उतरने शेष हैं?

बच्चों के आँखों में चमक तो आयी पर उसका अर्थ मुझे समझ न आया। उन्हें आलोक की भी कथा ज्ञात है, आलोक ने बचपन में एक निर्णय लिया और उसमें अपना जीवन पहचान भी चुका है। मैं अब भी निर्णयों के कई मोड़ों से होकर निकल रहा हूँ, चल रहा हूँ और स्वयं को चलते देख भी रहा हूँ। बच्चों को ज्ञात है कि उन पर कोई निर्णय थोपा नहीं जायेगा, जब भी लेंगे, जो भी लेंगे, वह उनका अपना निर्णय होगा। उनकी आँखों में कोई निर्णय लेने की शीघ्रता भी नहीं है, वे दोनों ही अभी अपने बचपन का आनन्द उठाने में व्यस्त हैं।

उनके प्रति हमारा व्यवहार अनुशासनप्रद भी रहेगा और आदरयुक्त भी, हमारे हाथ इतने दूर भी रहेंगे कि उन्हें दौड़ने में बाधा न हो और इतने पास भी कि गिरने पर उन्हें सम्हाल सकें।

49 comments:

  1. बहुत सुंदर सारगर्वित. बच्चो के मनोविज्ञान तो टटोलते हुए बहुत ही व्यखाय्त्म्क निबंध .. पाण्डेय भाई ...सादर

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  2. सच कहा आपने , बच्चे भगवान का रूप होते हैं

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  3. बच्चों के ऊपर माता-पिता का निर्णय थोपना तो गलत है पर यदि बच्चे भी अपने निर्णयों में माता-पिता के अनुभवों का फायदा उठाते हुए उनसे परामर्श करते हुए निर्णय लें तो सोने पे सुहागा|

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  4. बच्चों को ज्ञात है कि उन पर कोई निर्णय थोपा नहीं जायेगा, जब भी लेंगे, जो भी लेंगे, वह उनका अपना निर्णय होगा। उनकी आँखों में कोई निर्णय लेने की शीघ्रता भी नहीं है, वे दोनों ही अभी अपने बचपन का आनन्द उठाने में व्यस्त हैं।

    परिवार हमारे अस्तित्व का आधार है और बच्चे हमारे जीवन की पूँजी हैं |बच्चों को अच्छे से बड़ा करना ही हमारे जीवन की प्रथम प्राथमिकता होनी चाहिए ...
    सार्थक आलेख और सुंदर चित्र भी ....
    शुभकामनायें ।


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  5. बच्चों से अपेक्षाओं से पूर्व बच्चों की अपेक्षाओं का भान नितांत आवश्यक है | बच्चे माँ-बाप में अपना रोल मॉडल देखते हैं | भूल से भी कोई ऐसा व्यवहार / प्रकरण बच्चों के सामने नहीं होना चाहिए जससे वे विस्मित से हो जाए कि मेरे पापा मम्मी ऐसा भी करते हैं | समाज में सभी अच्छे नहीं होते ,उनके विषय में भी उन्हें वय अनुसार समय आने पर अवश्य बताते रहना चाहिए | पूरे जीवन का सबसे अच्छा समय बच्चों के साथ बिताया हुआ वही वक्त होता है जब आप उनको जीवन में स्थापित करने में तत्पर रहे होते हैं | बच्चे सभी बहुत अच्छे होते हैं और इस प्रतिस्पर्धा के युग में उनकी विफलता को भी बहुत सावधानी से अगले सफल प्रयासों की और मोड़ने की आवश्यकता होती है | बच्चों और उनकी बातों / सुझावों को सम्मान अवश्य देना चाहिए | कभी कभी तो कठिन घडी में वे इतना अच्छा सुझाव देते हैं कि सहसा आपको विश्वास नहीं होता |

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  6. बच्चों की चिंतन प्रक्रिया को मान मिलना आवश्यक है | उनकी विचारशीलता और रचनात्मकता को और बल मिलता है ऐसे सम्मान भाव से ..... परिणामस्वरूप वे आगे चलकर स्वयं सही गलत का निर्णय करने में सक्षम होते है ....

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  7. स्वतंत्र कर देना कई बार स्वयं को पा लेना होता है तो कभी सहजता छीन भी लेता है! यह ऐसा विषय है कि प्रत्येक अभिभावक और बच्चे के लिए एक सा नियमपूर्वक नहीं हो सकता .
    अनुशासनयुक्त आदर की भली भांति विवेचना की .

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  8. आप जब भी ऑटोबायोग्रफिकल होते हैं बहुत रूचि लेकर पढता हूँ -श्रेष्ठ जीवन कथाएं महज पूर्ण रूपेण वैयक्तिक न होकर अपने साथ बिताये कल क्रमों के समानांतर के अनेक परिप्रेक्ष्यों-सामजिक व्यवस्था ,सोच और देश काल परिस्थितियों को लेती चलती हैं और यथार्थ -साहित्य का सृजन करती हैं -आपने आलोक जी जो एक समादृत चित्रकार हैं के साथ कई अन्य व्यक्तियों और दृष्टान्तों का उल्लेख कर इस आत्मकथात्मक पोस्ट को यादगार बना दिया है -ऐसी पोस्टों का संग्रह करते रहें यह आपकी ऑटो बायग्राफी को समग्रता देगीं -अब तो आपके एक कविता संकलन के साथ ही आत्मकथा की आस भी बढ़ चली है !

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  9. सम्मान और स्वाधीनता के साथ अनुशासन और मर्यादा का संतुलन भी ज़रूरी है .

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  10. बच्चे स्वतंत्र इकाई होते हैं .सोचतें हैं और बड़ा सटीक सोचतें हैं .आदर और स्नेह दोनों की उन्हें ज़रुरत होती है न कि हर पल हिदायतों की .उन्हें पूर्ण स्वायत्ता चाहिए .अब वह दौर गया जब करियर भी नियोजित होते थे विवाह तो होते ही थे .जैसा बड़ों ने कहा मन मसोस के मान लिया .अब स्वतंत्रता मिली है तो बच्चे आगे भी बढ़ रहें हैं .सर्वाधिक अच्छा कर रहें हैं लेकिन वहीँ जहां उन्हें बराबर का दर्जा मिल रहा है .

    अब कार्य क्षेत्र भी बढ़े हैं .नए नए अनुशासन आयें हैं .कोई भी राह चुन लो .कुंद हो जाती है बच्चों की क्षमता बेहद टोका टाकी से .उन्हें मार्ग बतलाना है धकेलना नहीं है उस जानिब .चयन उनका होना चाहिए .

    बेहद मौजू पोस्ट .आभार .

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  11. सारगर्भित |
    कई उत्कृष्ट सलाह -
    आभार भाई जी ||

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  12. जिस प्रकार माता-पिता समाज के चलन से भ्रमित हो जाते हैं वैसे ही बच्‍चे भी भ्रमित होते हैं इसलिए भविष्‍य के ि‍नर्णय सभी को सोच समझकर लेने चाहिए।

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  13. बच्चे भला गलत कैसे हो ? आदर स्वनिर्मित या स्वजनित होता है, जबकि इज्जत स्टॉक (स्कंध ) में से देना होता है !

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    1. वैसे आदर व इज्ज़त में क्या अंतर है? जी............
      ---अगर बच्चे गलत नहीं होसकते तो क्या माता-पिता गलत होंगे?..क्यों....
      --ये सब भ्रमित वाक्यांश व कथन हैं....सत्य यही है कि....

      "सम्मान और स्वाधीनता के साथ अनुशासन और मर्यादा का संतुलन भी ज़रूरी है .""

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  14. बच्चे एक कोरी तस्वीर के समान है जो चाहे रंग भर सकते है पर उनकी इच्छाओ का मान देते हुए...बच्चों पर एक मनोविज्ञानिक सार्थक सोच...आभार..

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    1. सही कहा कनेरी जी....बस रंग भरने वाला स्वयं भी रंग जानने वाला होना चाहिए...निश्चय ही अनुभवी व्यक्ति अधिक रंग जानने वाला होगा बच्चों की अपेक्षा ...अतः बच्चों को उचित दिशा-निर्देश तो दिया जाना ही चाहिए ...इसी "उचित" का निर्धारण करने में ही सावधानी की आवश्यकता है....

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  15. ----वैसे आदर व इज्ज़त में क्या अंतर है? जी............
    ---अगर बच्चे गलत नहीं होसकते तो क्या माता-पिता गलत होंगे?..क्यों....
    --ये सब भ्रमित वाक्यांश व कथन हैं....सत्य यही है कि....

    "सम्मान और स्वाधीनता के साथ अनुशासन और मर्यादा का संतुलन भी ज़रूरी है .""...माता-पिता को भी..बच्चों को भी....

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  16. @ हमारे हाथ इतने दूर भी रहेंगे कि उन्हें दौड़ने में बाधा न हो और इतने पास भी कि गिरने पर उन्हें सम्हाल सकें।

    बढ़िया विचार हैं ..आभार अच्छी पोस्ट के लिए !

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  17. यह जानकारी और आगे बढ़ती है

    http://www.wisegeek.com/what-is-semantic-memory.htm
    http://www.cdl.org/resource-library/articles/memory.php
    http://www.lucid-research.com/memory-development.htm

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  18. I was born genius, education ruined me... :)

    Quite nice saying.

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  19. हम गुने जा रहे है . प्रभावी और संतुलित प्रस्तुतीकरण .

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  20. हमारे हाथ इतने दूर भी रहेंगे कि उन्हें दौड़ने में बाधा न हो और इतने पास भी कि गिरने पर उन्हें सम्हाल सकें। बस यही सार है इस विषय का यदि हम इतना करने में भी कामयाब हो गए तो समझिए बेड़ा पार है इस परवरिश जैसे कठिन कार्य का .... :)

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  21. ...अच्छा लगा,आलोक के बहाने मुझे भी कुछ आलोक मिला !

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  22. आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 27-09 -2012 को यहाँ भी है

    .... आज की नयी पुरानी हलचल में ....मिला हर बार तू हो कर किसी का .

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  23. अति सुंदर अभिव्यक्ति ,वैसे तो आपके सारे लेख सार्थक होते है लेकिन इसे पढ़ कर ऐसा लगा जैसे यह मेरे ही दिल की आवाज़ हो ,

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  24. बहुत बढ़िया प्रेरक प्रस्तुति ..आभार

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  25. बच्चों को बच्चों के स्तर पर आ कर ही समझना आवश्यक है. प्रेरक विवरण.

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  26. बच्चों को भी स्पेस देना चाहिए,और उनकी भावनाओं का सम्मान होना चाहिए

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  27. बच्चों का जीवन /स्वभाव /बुद्धि कोशांक

    बच्चों का जीवन प्राकृत ,सीधा साधा ,बिना लाग लपेट का ,स्वभाव चंचल लेकिन मृदु और बुद्धि कोशांक बालिगों से बहुत ज्यादा होता है .रचनात्मकता भी पांच साला बच्चे की शीर्ष पे होती है .

    children are endowed with infinite resources ,we have finite sources to handle them .

    अब आज का ही वाकया लीजिए कोई घंटा भर पहले का .स्कूल बस अब आने ही वाली थी हम भी जूते पहनने लगे थे बेशक बस तकरीबन घर के सामने ही रूकती है लेकिन अगर बच्चा नर्सरी का है तो कोई संरक्षक बस स्टॉप पर मौजूद रहना चाहिए .स्कूल से लौटते वक्त भी यहाँ यही नियम है .बस अकेले बच्चे को उतार कर नहीं जायेगी बस स्टॉप पर .

    अब साहब देखा तो छोटी जी(उम्र ५ +) मछरे हुए थे ,औंधे मुंह सोफा पे पड़े सुबकने लगे थे .अभी दो मिनिट पहले एक वी गेम खेल रहा था ,डी एस ई पर खेल रहा था .अब क्या हो गया इतनी सी देर में .हमने पजल होकर छोटी को जोर से झिंझोड़ दिया (भैया बस चली गई तो तुम्हारा मम्मी हम पे बरसेगा और फिर सारे दिन हम तुमको संभालेंगे कैसे ),झिंझोड़ने पर वह और जोर से रोने लगा ,क्राई करने लगा .

    ठीक इसी समय पर बडैले(हमारे बड़े धेवते उम्र ७+ )ने हमसे क्या कहा सुनिए -नानू डोंट शाउट ,ही विल क्राई मोर .आई सेड यू एपीज हिम . ,समझाओ इसे .उसने कहा -छोटी डोंट क्राई .हमने भी कूल होते हुए कहा--छोटी इज ए गुड बॉय ,आई ऍम सोर्री छोटी .आई वाज़ पजल्ड .इफ यू मिस योर "स्कूल- बस" यू नो योर मम्मा विल पुल मी .एंड आई लुव यू सो मच एंड यू लव मी टू दी सेम अमाउंट .

    बहल गया बच्चा .मेरी ऊंगली पकड बस स्टॉप तक आया .हेव ए ग्रेट डे इन स्कूल ,पोर्त्रियेट टू .

    दरअसल आजकल बच्चों को सुबह (५-७ साला बच्चों को) स्कूल के लिए तैयार करना बहुत मुश्किल काम हो गया है .बच्चे उठते ही इलेक्ट्रनिक गेजेट्स से चिपक जाते हैं .चिपके चिपके ही खातें हैं हमारे हाथ से .ऐसा ही हो रहा है वहां इंडिया में भी ,मुंबई में हमारे पोतों के साथ और यहाँ कैंटन में भी हमारे धेवतों के साथ .हम बारी बारी से दोनों जगह रहतें हैं .

    यहाँ तो हमारी बेटी और दामाद सुबह ही इन्हें हडबडी में ही तैयार करते करते भागतें हैं अपने काम पे (वर्क प्लेस ) ऊपर से इनके ओबसेशन .

    लेकिन आज का वाकया(किस्सा )जुदा है .आज स्कूल में पोर्टरियेट डे है .ये स्कूल भी खुलते बाद में हैं यहाँ अमरीका में ये चोचले पहले शुरु हो जातें हैं कभी करिकुलम ईवनिंग कभी ये कभी वो .बच्चे को अनुकूलन का समय नहीं देते न माँ बाप को .

    अभी जुम्मा जुम्मा आठ रोज हुए हैं स्कूल खुले समर ब्रेक के बाद (४ सितम्बर ).अब छोटी को अपना पोर्टरियेत खिंचवाना पसंद ही नहीं है और न ही वह फोर्मल्स पहनना पसंद करता है इसलिए .टेम्पर टेनटर्म्स सुबह से ही शो कर रहा था .जिसकी अंतिम परिणिति हमें झेलनी पड़ रही थी .उसे पोर्टरियेट के लिए फोर्मल्स पहनने पड़ रहे थे .इसीलिए खीझा हुआ था .

    ज़नाब इस दौर में बच्चों की अपनी पसंदगी /ना -पसंदगी भी है .

    बच्चा बच्चे के मन को मनो -विज्ञान को हमसे बेहतर समझता है .हम तो अपने ही खीझे रहतें हैं जीवन की आपा धापी में . और साधन भी हमारे सीमित हैं समझ भी बाल -मनो -विज्ञान की .क्या कहतें हैं आप ?

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  28. बच्चों के प्रति हम कितने सचेत हैं हमारा व्यवहार जिससे उनका विकास होता है किस तरह का होना चाहिए यह सब आपके आलेख में पढ़कर बहुत अच्छा लगा बहुत ही उत्कृष्ट आलेख है बहुत बधाई

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  29. बच्चों की पोस्ट कहूँ या बड़ों की या शायद दोनों की.. प्रेरक ऐज़ यूज़ुअल!!
    आलोक जी से शायद आपने पहले भी मिलवाया है!!

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  30. आप ही की एक पुरानी पोस्ट ध्यान आ रही है, गलती नहीं कर रहा तो 'मेरे कुम्हार' शीर्षक था| माता-पिता और गुरुजन कुम्हार की तरह ही होने चाहियें, सही आकार देने के लिए दबाव भी जरूरी और सपोर्ट भी, ऐसी ही भावना लिए आपका ये वाक्य ' हमारे हाथ इतने दूर भी रहेंगे कि उन्हें दौड़ने में बाधा न हो और इतने पास भी कि गिरने पर उन्हें सम्हाल सकें' भी जीवन सूत्र का काम करेगा|

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  31. आपने बहुत अच्छे से बच्चों के मनोविज्ञान को समझाया है .... अधिकांश रूप से बच्चों को अनुशासित कराते हुये उनकी भावनाओं को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है जिससे बच्चों के सहज विकास में बाधा आती है , जिसे शायद माता - पिता उस समय नहीं समझ पाते ... पोस्ट की अंतिम पंक्ति में ही पूरी पोस्ट का सार है ---

    हमारे हाथ इतने दूर भी रहेंगे कि उन्हें दौड़ने में बाधा न हो और इतने पास भी कि गिरने पर उन्हें सम्हाल सकें

    आलोक नियमतः प्रत्येक रविवार सड़क पर रहने वाले या अतिनिर्धनता में जीवन ज्ञापन करने वाले बच्चों को चित्रकला सिखाते हैं,... इन पंक्तियों में ज्ञापन की जगह यापन कर लें ।

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  32. बहुत अच्छी लगी पोस्ट। बच्चों को प्यार के साथ सम्मान भी मिलना चाहिए। अनादर तो हर्गिज नहीं करना चाहिए। पिटाई भूल सकते हैं लेकिन अपमान नहीं भूलते। राष्ट्र में इतनी अधिक निरक्षरता और आपस में इतना द्वेष होने के पीछे एक कारण बच्चों की मानसिकता को ठीक से न समझना भी है। मैं तो बच्चों को यह निर्देश देने के भी खिलाफ हूँ कि कोई भी घर में बड़ा आये तो उसका दौड़ कर पैर छूना चाहिए। मैने बच्चों से हमेशा यही कहा कि जब किसी को देख कर तुम्हारा मन श्रद्धा से भर जाये, लगे कि आदरणीय हैं, पैर छूना चाहिए तभी छूना। अभिवादन के लिए प्रणाम करना ही पर्याप्त है।

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  33. सारगर्भित आलेख बच्चों को निश्चित ही प्यार ओर सम्मान पूर्ण अनुसासन में सहज स्वरुप में सर्वांगीण विकास की ओर अग्रसर करना श्रेयस्कर ओर बाल मन की कोमलता के अनुरूप है...बेहद भाव पूर्ण कथन है आपका.....उनके( बच्चों के) प्रति हमारा व्यवहार अनुशासनप्रद भी रहेगा और आदरयुक्त भी, हमारे हाथ इतने दूर भी रहेंगे कि उन्हें दौड़ने में बाधा न हो और इतने पास भी कि गिरने पर उन्हें सम्हाल सकें।
    सार्थक एवं प्रेरक आलेख के लिए हार्दिक बधाईयां पांडे जी ........

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  34. बिल्‍कुल सही कहा आपने ... प्रेरणात्‍मक प्रस्‍तुति के लिए आभार

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  35. बाल मनोविज्ञान पर बहुत सारगर्भित और विचारोत्तेजक आलेख...

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  36. उत्कृष्ट आलेख .

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  37. bahut hi achcha likhe hain......

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  38. अलोक जी के बारे में जानकारी और बालमनोविज्ञान को रेखांकित करती पोस्ट बहुत अच्छी लगी |

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  39. उत्तम आलेख!

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  40. आपकी द्रुत टिपण्णी और और ऐसे समाज उपयोगी प्रसंगों पर विमर्श पैदा करने के लिए आपका शुक्रिया .ब्लॉग का सही चरित्र विमर्श ही है .

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  41. जब बड़े स्वभावतः रूढ़ हो जाते हैं वे चाह कर भी उपरोक्त कथन पूरा नही कर पाते तब वे 'do't do what i do but do what i say'का सूत्र अपनाते हैं।

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  42. बच्चों को प्यार और सम्मान कितना जरूरी है यह मै खूब जानती हूँ । बचपन में जब माँ मेरी सहेलियों के सामने मेरे अवगुण गिनवाती थीं तब कितना अपमानित महसूस करती थी मै । आप सही कह रहे हैं कि बच्चे के इतना ज्यादा पास ना रहें कि उसे दौडने में अडचन हो पर इतने दूर भी नही कि गिरने पर उसे उठा न सकें । पठनीय और मननीय पोस्ट ।

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  43. Anonymous30/9/12 02:10

    आखिरी पंक्तियों में आलेख की जान है.
    काश हम समझ पायें की बच्चे हमारी बपौती नहीं हैं.

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  44. बच्चो के साथ बस यही करना चाहिए कि वो स्वतन्त्रता को महसूस करें और निर्भय भी रहें कि उनको सहारा देने वाले हाथ उनकी साथ हैं ......

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  45. यह एक सूक्त वाक्य है.....

    "पारिवारिक अनुशासन आवश्यक है और वह बड़ों को अपने आचरण से स्थापित करना होता है, बच्चों को श्रम का गुण सिखाना हो तो स्वयं भी खटना होता है। अनुशासन का यह स्वरूप आदर के साथ संप्रेषित होता है।"

    आभार इस सत्वचन के लिए

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  47. आलेख बहुत सुन्दर है और उपयोगी भी...!

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